अपना आधार (द्वीप) स्वयं होना

 🌻धम्म प्रभात🌻 


        अत्त दीपा

       अत्तसरणा

     अनञ्ञसरणा

        धम्मदीपा

       धम्मसरणा 


अपना आधार (द्वीप) स्वयं होना। 


ऐसा मैंने सुना - 

एक समय भगवान सावत्थि (श्रावस्ती) में जेतवन में विहार करते थे ।

तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को संबोधित करते हुए कहा- 


“ भिक्खुओं ! 

तुम अपना आधार स्वयं बनो (अत्तदीपा) , अपना शरणस्थल स्वयं बनो (अत्तसरणा), किसी दूसरे की शरण में जाने का प्रयास न करो (अनञ्ञसरणा)। 

या 

फिर धम्म ही तुम्हारा आधार है (धम्मदीपा), 

धम्म ही तुम्हारा शरणस्थल है (धम्मसरणा), 

इस के अतिरिक्त कोई दूसरा तुम्हारे लिये शरणस्थल नहीं है (अनञ्ञसरणा) । 


भिक्खुओं ! तुम लोग इस तरह 

-अत्तदीपानं , 

-अत्तसरणानं, 

-अनञ्ञसरणां, 

-धम्मदीपानं (धर्मद्वीप) एवं 

-धम्मसरणां (धर्मशरण) होकर साधना करते हुए इस बात की परीक्षा में तत्पर हो जाओ कि- 

-शोक, 

-परिदेव, 

-दु:ख, 

-दौर्मनस्य एवं 

-उपायास (पश्चात्ताप) का 

-जाति एवं प्रभव (= जन्मस्थल)।

क्या है?" 


"भिक्खुओं ! इन शोक परिदेव आदि की जाति या प्रभव स्थल क्या है ? 

यहाँ भिक्खुओ! कोई अज्ञ, पुथुज्जन (पृथग्जन), अरियानं अदस्सावी, अरिय धम्म को न जानने वाला, उस धम्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाला, सत्पुरूषों के सान्निध्य में न बैठने वाला, सत्पुरूषों के धम्म को न जानने वाला, उस धम्म के प्रति श्रद्धा न रखने वाला -- 


1.'रूप' को अपना समझता है, या अपने में रूप को समझता है, या अपने को रूपवान समझता है, या रूप अपने को समझता है; उस का वह रूप, समय आने पर विपरिणत (अन्यथा) हो जाता है, या बदल जाता है । उस रूप के अन्यथा होने या बदल जाने से उस अज्ञ के चित्त में शोक, परिदेव, दु:ख, दौर्मनस्य एवं उपायास (पश्र्चाताप) होने लगते हैं।' 


2.'वेदना' को अपना समझता है, या अपने में वेदना को समझता है, या अपने को वेदनावान् समझता है, या वेदना अपने को समझता है; उसकी वह वेदना, समय आने पर विपरिणत (अन्यथा) हो जाती है, या बदल जाती है । उस वेदना के अन्यथा होने या बदल जाने से उस अज्ञ के चित्त में शोक, परिदेव, दु:ख, दौर्मनस्य एवं उपायास (पश्र्चाताप) होने लगते हैं।' 


3.'संज्ञा' को अपना समझता है, या अपने में संज्ञा को समझता है, या अपने को संज्ञावान् समझता है, या संज्ञा अपने को समझता है; उस की वह संज्ञा , समय आने पर विपरिणत (अन्यथा) हो जाती है, या बदल जाती है । उस संज्ञा के अन्यथा होने या बदल जाने से उस अज्ञ के चित्त में शोक, परिदेव, दु:ख, दौर्मनस्य एवं उपायास (पश्र्चाताप) होने लगते हैं।' 


4.'संस्कारों' को अपना समझता है, या अपने में संस्कारों को समझता है, या अपने को संस्कारवान् समझता है, या संस्कार अपने को समझता है; उस का वह संस्कार , समय आने पर विपरिणत (अन्यथा) हो जाता है, या बदल जाता है । उस संस्कार के अन्यथा होने या बदल जाने से उस अज्ञ के चित्त में शोक, परिदेव, दु:ख, दौर्मनस्य एवं उपायास (पश्र्चाताप) होने लगते हैं।'


5.'विज्ञान' को अपना समझता है, या अपने में विज्ञान को समझता है, या अपने को विज्ञानवान् समझता है, या विज्ञान अपने को समझता है; उस का वह विज्ञान , समय आने पर विपरिणत (अन्यथा) हो जाता है, या बदल जाता है । उस विज्ञान के अन्यथा होने या बदल जाने से उस अज्ञ के चित्त में शोक, परिदेव, दु:ख, दौर्मनस्य एवं उपायास (पश्र्चाताप) होने लगते हैं।' " 


“भिक्खुओं! इस तरह रूप की अनित्यता जान कर उसके अन्यथात्व, त्याग एवं निरोध को अतीत एवं वर्तमान रूपों में भी समझ कर समस्त दु:खों को इसी तरह से -अनित्य, 

दु:खमय एवं विपरिणामधर्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरुष उन के कारण अपने में उद्भयमान शोक परिदेवादि से मुक्त हो जाता है। उन के प्रहाण से उस में उत्तेजना नहीं आती है। इस सात्त्विक उत्तेजना के न होने से वह सुख का अनुभव करता है। ऐसी सुखसाधना वाला भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है।" 


"वेदना में भी, भिक्खुओ! इस तरह वेदना की अनित्यता जान कर उसके अन्यथात्व, त्याग एवं निरोध को अतीत एवं वर्तमान वेदनाओं में भी समझ कर समस्त दु:खों को इसी तरह से 

अनित्य, दु:खमय एवं विपरिणामधर्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरुष उन के कारण अपने में उद्भयमान शोक परिदेवादि से मुक्त हो जाता है। उन के प्रहाण से उस में उत्तेजना नहीं आती है। इस सात्त्विक उत्तेजना के न होने से वह सुख का अनुभव करता है। ऐसी सुखसाधना वाला भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है।" 


"संज्ञा में भी, भिक्खुओं! इस तरह संज्ञा की अनित्यता जान कर उसके अन्यथात्व, त्याग एवं निरोध को अतीत एवं वर्तमान संज्ञाओं में भी समझ कर समस्त दु:खों को इसी तरह से अनित्य, 

दु:खमय एवं विपरिणामधर्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरुष उन के कारण अपने में उद्भयमान शोक परिदेवादि से मुक्त हो जाता है। उन के प्रहाण से उस में उत्तेजना नहीं आती है। इस सात्त्विक उत्तेजना के न होने से वह सुख का अनुभव करता है। ऐसी सुखसाधना वाला भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है।" 


"संस्कारों में भी, भिक्खुओ! इस तरह संस्कार की अनित्यता जान कर उसके अन्यथात्व, त्याग एवं निरोध को अतीत एवं वर्तमान संस्कारों में भी समझ कर समस्त दु:खों को इसी तरह से अनित्य, 

दु:खमय एवं विपरिणामधर्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरुष उन के कारण अपने में उद्भयमान शोक परिदेवादि से मुक्त हो जाता है। उन के प्रहाण से उस में उत्तेजना नहीं आती है। इस सात्त्विक उत्तेजना के न होने से वह सुख का अनुभव करता है। ऐसी सुखसाधना वाला भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है।" 


"विज्ञान में भी,  भिक्खुओं ! इस तरह विज्ञान की अनित्यता जान कर उसके अन्यथात्व, त्याग एवं निरोध को अतीत एवं वर्तमान विज्ञानों में भी समझ कर समस्त दु:खों को इसी तरह से अनित्य, 

दु:खमय एवं विपरिणामधर्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरुष उन के कारण अपने में उद्भयमान शोक परिदेवादि से मुक्त हो जाता है। उन के प्रहाण से उस में उत्तेजना नहीं आती है। इस सात्त्विक उत्तेजना के न होने से वह सुख का अनुभव करता है। ऐसी सुखसाधना वाला भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है।" 


"(पंच-खन्ध में) अनित्यता  जान कर, दु:खमय एवं विपरिणाम-धम्मा (विनाशी) समझता हुआ पुरूष उनके कारण अपने में उद्भयमान उसके समस्त शोक, परिदेवादि नष्ट हो जाते हैं। उन के नष्ट हो जाने से एतत्सम्बन्धी उत्तेजना भी निवृत्त हो जाती है। इस से वह सुखपूर्वक साधना करता हुआ धर्मसाधना में आगे बढ़ता है। ऐसा सुखविहारी भिक्खु ‘उतने अङ्ग से मुक्त हुआ' समझा जाता है'' |



नमो बुद्धाय🙏🏻🙏🏻🙏🏻

Ref:संयुत्तनिकाय :अत्तदीप सुत्त

12.03.2023

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