'द कश्मीर फाइल्स' किसकी किसकी फाइलें खोलेंगे आप?

 'द कश्मीर फाइल्स' किसकी किसकी फाइलें खोलेंगे आप?

करवट : कुमार प्रशांत



इस दौर में वीपी सिंह की अल्पमत सरकार को साम्यवादियों और भाजपाइयों ने समर्थन देकर खड़ा रखा था ताकि कांग्रेस को किनारे रखकर, अपना एजेंडा पूरा करवाया जा सके। जितने वक्त रहे उतने वक्त वीपी सिंह अपनी सत्ता बचाते हुए राष्ट्रीय धारा को सांप्रदायिकता से बचाने की कसरत करते रहे। अभी उनकी सरकार बनी ही थी कि उनके गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी रूबिया का अपहरण आतंकवादियों ने कर लिया। उन्होंने अपने 5 साथियों की रिहाई की शर्त पर गृहमंत्री की बेटी को छोड़ने की बात रखी। उनकी शर्त मान ली गई। एक अच्छा लेकिन कमजोर प्रधानमंत्री देश के लिए कितना बुरा हो सकता है, वीपी सिंह इसके उदाहरण बने। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी ने आतंकियों की सरकारी रिहाई के कायराना फैसले का कभी विरोध नहीं किया और इस मौके का फायदा उठाकर अपनी पसंद के राज्यपाल जगमोहन की नियुक्ति कश्मीर में करवा ली। यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि जगमोहन पहले कांग्रेस की पसंद से राज्यपाल बने थे। इससे यह समझना आसान हो जाता है कि सत्ता के पास पत्ते एक से ही होते हैं। फर्क बस फेंटने का होता है।


रूबिया-प्रकरण ने वह जमीन तैयार कर दी थी जिस पर खड़े होकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने कांधार में वही किया जो वीपी सिंह ने रूबिया-प्रकरण में किया था। कायरता कायरता को ही जन्म देती है, भले उसके छिपाने के पर्दे का नाम कभी रूबिया हो तो कभी कांधार।


कश्मीर में जगमोहन का यह दूसरा कार्यकाल पहले से भी ज्यादा बुरा रहा। बुरा इस अर्थ में नहीं कि वे कश्मीर को संभाल नहीं सकें बल्कि इस अर्थ में कि वे कश्मीर को भाजपा के दिए एजेंडे के मुताबिक सांप्रदायिकता से सराबोर कर गए। वे जगमोहन ही थे जिन्होंने मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को बर्खास्त करवाया, वे जगमोहन ही थे जिन्होंने आतंकियों के लिए कश्मीर को चारागाह बनने से रोकने के लिए कुछ खास नहीं किया क्योंकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भाजपा की रणनीति थी, वे जगमोहन ही थे जिन्होंने डरे-घबराए कश्मीरी पंडितों को हिम्मत व संरक्षण देने के बजाए उन्हें कश्मीर छोड़ने की सलाह भी दी और सुविधा भी।


कश्मीरी पंडितों को पलायन के बाद कितनी ही सुविधाओं का लालच दिखाया गया। अपने लिए नाम व नामा दोनों बटोरने का हिसाब भी पंडितों के पलायन के पीछे था। पलायन हमेशा डर, लालच और कायरता से पैदा होता है। आज कश्मीरी पंडित छलावे का वही जहरीला घूंट पी रहे हैं।


'द कश्मीर फाइल्स' वालों को यह सारा इतिहास दिखाई नहीं दिया कि यह सब दिखाना उनके एजेंडे में था ही नहीं? इतिहास के आकलन का दूसरा नाम तटस्थ ईमानदारी है, जिसका इस प्रहसन से कोई नाता नहीं है। यदि होता तो फिल्म को यह कहना ही चाहिए था कि 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ-साथ अनेक मुसलमान कश्मीरी भी मारे गए। एक-दो नहीं, अनेक! फिल्म नहीं बताती है कि मुहम्मद यूसुफ हलवाई कौन था और क्यों मारा गया? जीएम बटाली पर घातक हमला क्यों हुआ और फिर गुलशन बटाली कैसे मारे गए? एक मोटा अनुमान बताता है कि कश्मीर में कोई 25 हजार मुस्लिम कश्मीरी मारे गए तथा 20 हजार मुस्लिम कश्मीरियों ने उस दौर में पलायन किया।


मारे गए कश्मीरी पंडितों की संख्या हजार भी नहीं है, पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या विवादास्पद होते हुए भी लाखों में है। अगर आम कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के खिलाफ होता, तो यह संख्या एकदम उल्टी होनी चाहिए थी। लेकिन सच वैसा नहीं है।


सच यह है कि कमजोर भारत सरकार व जहरीले इरादे वाले राज्यपाल के कारण तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों को खूब मदद की और भारत समर्थक तत्वों को निशाने पर लिया। यह हिंदू-मुसलमान का मामला नहीं, भारत समर्थक व भारत विरोधी तत्वों  का मामला था। कश्मीरी पंडितों को घाटी में कोई रोकना नहीं चाहता था - पाकिस्तान भी नहीं, जगमोहन के आका भी नहीं। कश्मीरी पंडितों को बचाने कई मुसलमान सामने आए जैसे ऐसी कुघड़ी में हमेशा इंसान सामने आते हैं। और अधिकांश मुसलमान वैसे ही डरकर पीछे हटे रहे जैसे ऐसी कुघड़ी में आमतौर पर लोग रहते हैं। कितने हिंदू संगठित तौर पर मुसलमानों को बचाने गुजरात के कत्लेआम के वक्त आगे आए थे? सभी जगह मनुष्य एक से होते हैं। कोई हिम्मत बंधाता है, आचरण के ऊंचे मानक बनाता है तो लोग उसका अनुकरण करते हैं। कोई डराता है, धमकाता है, फुसलाता है तो भटक जाते हैं। यह मनुष्य सभ्यता का इतिहास है। इसलिए खाईयां पाटिए, दरारें भरिए, जख्मों पर मरहम लगाइए, लोगों को प्यार, सम्मान व समुचित न्याय दीजिए। इससे इतिहास बनता है।


हम यह न भूलें कि हर इतिहास के काले व सफेद पन्ने होते हैं, कुछ भूरे व मटमैले भी। वे सब हमारे ही होते हैं। कितनी फाइलें खोलेंगे आप? दलितों- आदिवासियों पर किए गए बर्बर हमलों की फाइलें खोलेंगे? सहारनपुर- कोरेगांव की फाइलें खोलेंगे? भागलपुर- मलियाना- मेरठ की फाइलें खोलेंगे? गुजरात के दंगों की? सत्ताधीशों की काली कमाई की? स्विस बैंकों की? जैन डायरी की? जनता पार्टी की सरकार को गिराने की? मंडल कमीशन की? दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की? संघ परिवार को मिले व मिल रहे विदेशी दानों की? भारतीय जनता पार्टी को मिल रहे पैसों की? कोविड-काल में हुए चिकित्सा घोटालों की? वैक्सीन की कीमत के जंजाल की? सीबीआई व दूसरी सरकारी एजेंसियों के बेजा इस्तेमाल की? कठपुतली राज्यपालों की?


आप थक जाएंगे इतनी फ़ाइलें पड़ी हैं! इसलिए इतना ही किजिए कि अपने मन के अंधेरे- कलुषित कोनों को खोलिए और खुद से पूछिए : क्या सच्चाई की रोशनी से डर लगता है? डरे हुए लोग एक डरा हुआ देश बनाते हैं। कला का काम डराना व धमकाना नहीं, हिम्मत व उम्मीद जगाना है। - समाप्त


लेखक : गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं।

संकलनकर्ता : विश्वगुरु अनंत विचारक एकेपी पिंटू 

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